Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


सेवासदन मुंशी प्रेमचंद (भाग-3)

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शहर की म्युनिसिपैलिटी में कुल अठारह सभासद थे। उनमें आठ मुसलमान थे और दस हिन्दू। सुशिक्षित मेंबरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल देने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाएगा। वे सब सभासदों से मिल चुके थे और इस विषय में उनकी शंकाओं का समाधान कर चुके थे, लेकिन मेंबरों में कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था। ये लोग बड़े व्यापारी, धनवान और प्रभावशाली मनुष्य थे। इसलिए शर्माजी को यह भय भी था कि कहीं शेष मेंबर उनके दबाव में न आ जाएं। हिन्दुओं में विरोधी दल के नेता सेठ बलभद्रदास थे और मुसलमानों में हाजी हाशिम। जब तक विट्ठलदास इस आंदोलन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, तब तक इन लोगों ने उसकी ओर कुछ ध्यान न दिया था, लेकिन जब से पद्मसिंह और म्युनिसिपैलिटी के अन्य कई मेंबर इस आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे, तब से सेठजी और हाजी साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उन्हें मालूम हो गया था कि शीघ्र ही यह मंतव्य सभा में उपस्थित होगा, इसलिए दोनों महाशय अपने पक्ष को स्थिर करने में तत्पर हो रहे थे। पहले हाजी साहब ने मुसलमान मेंबरों को एकत्र किया। हाजी साहब का जनता पर बड़ा प्रभाव था और वह शहर के सदस्य मुसलमानों के नेता समझे जाते थे। शेष सात मेंबरों में मौलाना तेगअली एक इमामबाड़े के वली थे। मुंशी अबुलवफा इत्र और तेल के कारखाने के मालिक थे। बड़े-बड़े शहरों में उनकी दुकानें थीं। मुंशी अब्दुललतीफ एक बड़े जमींदार थे, लेकिन बहुधा शहर में रहते थे। कविता से प्रेम था और स्वयं अच्छे कवि थे। शाकिरबेग और शरीफहसन वकील थे। उनके सामाजिक सिद्धांत बहुत उन्नत थे। शैयद शफकतअली पेंशनर डिप्टी कलेक्टर थे और खां साहब शोहरतखां प्रसिद्ध हकीम थे। ये दोनों महाशय सभा-समाजों से प्रायः पृथक् ही रहते थे, किंतु उनमें उदारता और विचारशीलता की कमी न थी। दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था।

हाजी हाशिम बोले– बिरादराने वतन की यह नई चाल आप लोगों ने देखी? वल्लाह इनको सूझती खूब है, बगली घूंसे मारना कोई इनसे सीख ले। मैं तो इनकी रेशादवानियों से इतना बदजन हो गया हूं कि अगर इनकी नेकनीयती पर ईमान लाने में नजात भी होती हो, तो न लाऊं।

अबुलवफा ने फरमाया– मगर अब खुदा के फजल से हमको भी अपने नफे नुकसान का एहसास होने लगा। यह हमारी तादाद को घटाने की सरीह कोशिश है। तवायफें नब्बे फीसदी मुसलमान हैं, जो रोजे रखती हैं, इजादारी करती हैं, मौलूद और उर्स करती हैं। हमको उनके जाती फेलों से कोई बहस नहीं है। नेक व बद की सजा व जजा देना खुदा का काम है। हमको तो सिर्फ उनकी तादाद से गरज है।

तेगअली– मगर उनकी तादाद क्या इतनी ज्यादा है कि उससे हमारे मजमुई वोट पर कोई असर पड़ सकता है?

अबुलवफा– कुछ-न-कुछ तो जरूर पड़ेगा, ख्वाह वह कम हो या ज्यादा। बिरादराने वतन को दोखिए, वह डोमड़ों तक को मिलाने की कोशिश करते हैं, उनके साए से परहेज करते हैं, उन्हें जानवरों से भी ज्यादा जलील समझते हैं, मगर महज अपने पोलिटिकल मफाद के लिए उन्हें अपने कौमी जिस्म का एक अजो बनाए हुए हैं। डोमड़ों का शुमार जरायम पेशा अकवाम में है। आलिहाजा, पासी, भर वगैरह भी इसी जेल में आते हैं। सरका, कत्ल, राहजनी, यह उनके पेशे हैं। मगर जब उन्हें हिन्दू जमाअत से अलहदा करने की कोशिश की जाती है, तो बिरादराने वतन कैसे चिरागपा होते हैं। वेद और शासतर की सनदें नकल करते फिरते हैं। हमको इस मुआमिले में उन्हीं से सबक लेना चाहिए।

सैयद शफकतअली ने विचारपूर्ण भाव से कहा– इस जरायमपेशा अकवाम के लिए गवर्नमेंट ने शहरों में खित्ते अलेहदा कर दिए। उन पर पुलिस की निगरानी रहती है। मैं खुद अपने दौराने मुलाजिमत में उनकी नकल और हरकत की रिपोर्ट लिखा करता था। मगर मेरे ख्याल में किसी जिम्मेदार हिंदू ने गवर्नमेंट के इस तर्जे-अमल की मुखालिफत नहीं की। हालांकि मेरी निगाह में सरका, कत्ल वगैरह इतने मकरूह फेल नहीं हैं, जितनी असमतफरोशी। डोमनी भी जब असमतफरोशी करती है, तो वह अपनी बिरादरी से खारिज कर दी जाती है। अगर किसी डोम या भर के पास काफी दौलत हो, तो इस हुस्न के खुले हुए बाजार में मनमाना सौदा खरीद सकता है। खुदा वह दिन न लाए कि हम अपने पोलिटिकल मफाद के लिए इस हद तक जलील होने पर मजबूर हों। अगर इन तवायफों की दीनदारी के तुफैल में सारे इस्लाम को खुदा जन्नत अता करे, तो मैं दोजख में जाना पसंद करूंगा। अगर उनकी तादाद की बिना पर हमको इस मुल्क की बादशाही भी मिलती हो, तो मैं कबूल न करूं। मेरी राय तो यह है कि इन्हें मरकज शहर ही से नहीं, हदूद शहर से खारिज कर देना चाहिए।

हकीम शोहरत खां बोले– जनाब, मेरा बस चले तो मैं इन्हें हिंदुस्तान से निकाल दूं, इनसे एक जजीरा अलग आबाद करूं। मुझे इस बाजार के खरीदारी से अक्सर साबिका रहता है। अगर मेरी मजहबी अकायद में फर्क न आए, तो मैं यह कहूंगा कि तवायफें हैजे और ताऊन का औतार हैं। हैजा दो घंटे में काम तमाम कर देता है, प्लेग दो दिन में, लेकिन यह जहन्नुमी हस्तियां रुला-रुलाकर और घुला-घुलाकर जान मारती हैं। मुंशी अबुलवफा साहब उन्हें जन्नती हूर समझते हों, लेकिन वे ये काली नागिनें हैं, जिनकी आखों में जहर है। वे ये चश्में हैं, जहां से जरायम के सोते निकलते हैं। कितनी ही नेक बीबियां उनकी बदौलत खून के आंसू रो रही हैं। कितने ही शरीफजादे उनकी बदौलत खस्ता व ख्वार हो रहे हैं। यह हमारी बदकिस्मती है कि बेशतर तवायफें अपने को मुसलमान कहती हैं।

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